मोतीराम अड्डा गोरखपुर। लगभग दो दशक पहले प्राकृतिक संपदा का धनी तुर्रा नाला अब वीरान हो चला है। किसी जमाने में यहां गौरैया, टिकवा, खैमर, पनडुग्गी आदि पंछियों की चहचहाहट से सवेरा होता था और कई किस्म की मछलियां जल में अठखेलियां करती दिखती थी। स्थानीय सहित दूर दूर के किसान यहां बोरों धान सहित कमल, सेरकी, वेर्रा, तालमखाना, सिंघाड़ा आदि की खेती करते थे किन्तु सरकार और स्थानीय स्तर के जिम्मेदारों की अनदेखी होने से लगभग 30 किलोमीटर तुर्रा नाले के किनारे की यह जमीनें अब अनुपयोगी हो गई है।
मामला गोरखपुर जनपद स्थित भटहट के आगे से निकलकर पिपराइच क्षेत्र होते हुए झंगहां स्थित गोर्रा में मिलने वाले तुर्रा नाले का है। लगभग दो दसक पहले तुर्रा नाले के अगल-बगल की जमीन पर पिपराइच के तुर्रा बाजार से लेकर झंगहां तक 30 किलोमीटर के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बोरों धान की खेती होती थी। गर्मी के समय पैदा होने वाली यह खेती फरवरी माह में रोपाई कर मई अंत तक काट ली जाती थी। वर्तमान समय में कुछ किसानों द्वारा इन जमीनों पर उन्नत किस्म की धान की फसलों की रोपाई कर अच्छी पैदावार की जा रही है। लोगों का यह भी कहना है कि पूरी जमीन पर खेती होती तो यह क्षेत्र गोरखपुर के लिए बेमौसम धान का उत्पादन करने वाला अजूबा क्षेत्र होता।
खोराबार थाना क्षेत्र के तुर्रा नाले पर स्थित ग्राम सभा रामपुर डाड़ी के पूर्व प्रधान फागू निषाद ने बताया कि तुर्रा नाले के जल प्लावित भूमि के उपयोग के संबंध में बात करें तो केवल कड़जहां से झंगहां के बीच ग्राम सभा रामनगर कड़जहां, चौरी, रामपुर, रमलखना, रायगंज,हासूपुर, बसंतपुर,बेलवार, मोतीराम, शिवपुर, झंगहां, लक्ष्मीपुर, केवटलिया,तरकुलही,मोहनापुर,कुई , प्यासी,ऊचगांव, डोमरैला सहित देवरिया जनपद के रूद्रपुर कस्बा, भिरवा, नगवा इत्यादि गांवों के किसानों द्वारा यहां धान बोरों की खेती की जाती थी।उन्होंने बताया कि शासन द्वारा भविष्य को देखते हुए रणनीति पर काम नहीं करने का नतीजा है कि तुर्रा नाले की सफाई कर नाले को गहरा किया गया जिससे जल बहाव खेतों से नीचे चला गया और खेतों में पानी लगना बंद हो गया और आखिरकार बोरों धान की खेती विलुप्त होने की कगार पर है।
निम्न प्राकृतिक संपदा से भरा था यह क्षेत्र
तुर्रा नाले पर अवस्थित गांवों के बुजुर्ग बताते हैं कि उनके समय में चिड़ियों की चहचहाहट से सवेरा होता था और यहां लालसर, टिकवा खैमर पनडुग्गी उदबिलाव जैसे प्राकृतिक संरक्षक पशु पक्षियों सहित कई किस्म की मछलियां पाईं जाती थी। इस क्षेत्र में बोरों धान की खेती तो होती ही थी साथ-साथ कमल, सेरकी, वेर्रा (नीला कमल), तालमखाना, देशी सिंघाड़ा,नेवसा का भी उत्पादन आम बात थी।
तुर्रा नाले में उत्पन्न होने वाले नरकट और गोन से बिन्न समाज द्वारा चटाई आदि की बुनाई कर जिविका का साधन के रूप में उपयोग किया जाता था। इसके अलावा मछलियों की अधिकता भी लोगों के जीविकोपार्जन का साधन था।
जलसंरक्षण में आई कमी
एक समय 30 किलोमीटर से ज्यादा दूरी की लम्बाई और 300-900 मीटर की चौड़ाई क्षेत्र में लगातार पानी के रहने से जलसंरक्षण बढ़िया ढंग से होता था किन्तु अब पानी केवल नाले में सिमटने से जलसंरक्षण में कमी आई है। हालात यह है कि यहां भोजन की तलाश में आने वाले पशुओं को घास तो मिल जाता है किन्तु पानी की दिक्कत होती है। तुर्रा किनारे अवस्थित गांव रामपुर डाड़ी की हालत यह है कि भूजल स्तर काफी नीचे चला गया है जिससे आम हैंडपंप पानी नहीं देते हैं। यहां के लोगों को स्वच्छ जल हेतु समरसीवर या गहरी बोरिंग पर निर्भर रहना पड़ता है। चुकी इस तकनीकी में बड़ा खर्च है इसलिए सभी ग्रामीण नहीं करा पाते हैं और दूसरों के नलों पर निर्भर रहना पड़ता है।
कैसे हो सकता है समाधान
उपेक्षा का शिकार यह क्षेत्र पुनः पुनर्जिवित हो सकता है और प्राकृतिक संरक्षक पशु पक्षियों सहित धान बोरों की खेती पुनः लहलहा सकतीं हैं। लोगों की माने तो इन क्षेत्रों में सरकार द्वारा बनाए जा रहे नये पूलो के निर्माण के दौरान आधार पर कुछ फिट ऊंचा फाल तैयार कर दिया जाए तो पानी आवश्यकता अनुसार रुकने लगेगा और यह क्षेत्र और यहां की खेती हरी भरी हो जाएगी। सरकार के एक कदम से प्राकृतिक संरक्षण, भूजल संरक्षण, उन्नति खेती आदि दिशाओं में एक साथ काम हो जाएगा।
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