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आचार्य भूपेंद्रानंद महाराज ने बताया पितृपक्ष में कैसे किया जाता है पिंडदान

आचार्य भूपेंद्रानंद महाराज ने बताया पितृपक्ष में कैसे किया जाता है पिंडदान


उपेन्द्र कुमार पांडेय

 

 आजमगढ़::पृतपक्ष- इस वर्ष पितृ पक्ष श्राद्ध, प्रतिपदा का श्राद्ध कर्म ,तर्पणादि  18-9-2024 को सुबह 8 बजकर 41मिनट तक पूर्णिमा तिथि है, उसके उपरान्त प्रतिपदा लगेगा जो 19-9-2024को 6-17मिनट तक है ,अतः अपने पितरों एवं पूर्वजों सहित चराचर ब्रह्माण्ड स्थित जीव -जन्तुओं को भी अपना पूर्वज मानकर प्रत्येक हिन्दू श्रद्धा पूर्वक मानकर प्रत्येक हिन्दू श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों को श्राद्ध एवं तर्पण से तृप्त करें। तृप्त होने पर ये मनुष्यों को पुष्ट करते है। ".                                   " इष्टान् भोगान हि देवा दास्यन्ते यज्ञ भाविताः ।। गीता (3/13/ यज्ञ से प्रसन्न देवता हमें इष्ट भोग देते है,  इस प्रकार परस्परं भावयन्तः से यह विश्व चल रहा है ।   देने पर मिलेगा यही यज्ञ का सूत्र है।"ये नः पितुः पितरो ये पितामहाः

 ये आ विविशुः उर्वन्तरिक्षम् । 

ये आ क्षियन्ति पृथिवीमुत द्याम् ।

 तेम्य: पितृभ्यो नमसा विधेम ॥"

( अथर्व १८/२/४९)

√● जो हमारे पिता के पितर हैं तथा जो पितामह हैं, जो विस्तृत अन्तरिक्ष में निवास करते हैं, जो पृथिवी एवं द्युलोक पर शासन करते हैं, उन पितरों को हम अन्न से तृप्त करते हैं। (नमस् = अन्न)। 


"ये चेह पितरो ये च नेह 

याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्म ।

त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः

 स्वधाभिर् यज्ञं सुकृतं जुषस्व ॥"

( यजु १९/६७ )

√●जो पितर यहाँ हैं तथा जो यहाँ नहीं हैं जो इस यज्ञ में आये हैं, तथा जो नहीं आये हैं। जिन्हें हम जानते हैं और बुलाये हैं तथा हम जिन्हें नहीं जानते और इस लिये बुलाये भी नहीं है, ये जितने भी पितर हैं, हे अग्नि देव । आप उन्हें जानते हैं। पुण्यमय यज्ञ के अवसर पर समर्पित अन्न को ग्रहण कर आप प्रसन्न हों तथा सभी पितर प्रीतिपूर्वक इस अन्न को ग्रहण करें। (स्वधा =अन्न) ।

 जल से पितरों का तर्पण किया जाता है।

 अथ मन्त्राः 

" ये ते पूर्वे परागता अपरे पितरश्च ये । 

तेम्यो घृतस्य कुल्यैतु शतधारा व्यन्दती ।।"

(अथर्व १८/३/७२)

√●जो पितर बहुत पहले यमलोक जा चुके हैं तथा दूसरे पितर जो बाद में यम सदन गये हैं। अर्थात् प्रपितामह, पितामह, एवं पिता आदि इन सबको शतधारा युक्त जल की राशि प्राप्त हो इन्हें यह जल - मिले ।

" ये च जीवा ये च मृता ये जाता ये यज्ञियाः ।  

 तेम्यो घृतस्य कुल्यैतु मधुधारा व्यन्दती ।।"

       (अथर्व १८/४/५७)

√● जो पितर मर चुके हैं, जो गर्भ में आकर जीवन धारण कर रहे हैं, जो कहीं भी उत्पन्न हो चुके हैं। तथा जो हमारे लिये पूज्य है अर्थात् जिनके हम (मानव तन पाने के कारण) आभारी हैं, उन सभी पितरों के लिये मधुर जल की यह धारा प्राप्त हो 


√●(घृत=जल)।( (वि + उन्द् क्लेदने + शतृ + ङीष्= व्युन्दती- गोली / तृप्त करती हुई)। पितरों = के भी परम पितर भगवान्सूर्य को समस्त पितरों का आश्रय मान कर उन्हें नमस्कार अर्पित करना चाहिये। सूर्य रश्मियों पितर है। 


अथ मन्त्राः 


" नमो वः पितर ऊर्जे । 

नमो वः पितरो रसाय ॥ 

नमो वः पितरो भामाय।

 नमो वः पितरो मन्यवे ॥ |

 नमो व पितरो यद् घोरं तस्मै ।

 नमो व पितरो यद् क्रूरं तस्मै ॥

 नमो वः पितरो यच्छिवं तस्मै ।

 नमो वः पितरो यत्स्योनं तस्मै ॥"

(अथर्व १८/४/८१-८४)

√● हे पितरों, आप से ऊर्जा (बल), रस (आनन्द) भाम (ज्ञान), मन्यु (रक्षात्मक रोष) पाने के लिये नमस्कार है। 

√●हे पितरों, आप के घोर (पापहनन) तथा क्रूर (दण्डात्मक) रूप को नमस्कार है। 

√●हे पितरों, आप का जो भद्र कल्याणकारी शिव रूप है तथा जो स्योन (सौख्य रूप है, उसे नमस्कार है।

√● हवन, तर्पण के अतिरिक्त हम कौल पितरों का श्राद्ध करते हैं। श्रद्धापूर्वक पितरों के लिये भोज्यपदार्थ भेंट करना श्राद्ध है। इसमें अन्न का पिण्ड बना कर भूमि पर शुद्धपत्र के ऊपर रखा जाता है तथा पानी में प्रवाहित किया जाता है। पितरों के निमित्त दिया गया अन्न स्वथा कहलाता है। पितरों का नाम लेकर आवाहन कर उन्हें दिया जाता है, तभी वे लेते हैं। पितर स्वाभिमानी देवता हैं। वे पाने की आशा रखते हैं। न देने पर वे श्राप देते हैं। 

√●हमारा शरीर पितरों के गुणसूत्रों से बना हैं। इसके लिये हम पितरों के आभारी हैं। देवता हमारो आत्मा के प्रहरी हैं। इसलिये दोनों उपास्य हैं। पितर तो देवताओं से भी बढ़ कर हैं। सम्पूर्ण आश्विन कृष्णपक्ष पितरों के श्राद्ध के लिये है। इस पक्ष में सभी पितर यमलोक से भूलोक में उतरते हैं। पितरों को प्रसन्न रखने वाला धन एवं सन्तान से परिपूर्ण होता है। इन की प्रसन्नता के लिये इन्हें नित्य नमस्कार युक्त तर्पण करना चाहिये।श्राद्ध क्या है ?

संस्कृत व्यञ्जनाढ्यञ्च पयोदधिघृतान्वितम् ।

श्रद्धया दीयते यस्मात् श्राद्धं तेन निगद्यते ॥ पुलस्त्य वचनम् ॥


किसी पदार्थ का वर्तमान रहते हुए, उसमें जो कुछ अन्यपदार्थ उसके आधार पर रखा जाता है, उस सत् पदार्थ का आधार द्रव्य को सत्य कहते हैँ ।आश्रय प्रदान करने के कारण सत्यभाव को श्रत् कहते हैँ । आपः का ब्रह्ममय रूप सोम का प्रजनन करता है । श्रद्धारूप सूक्ष्म आपः आदित्य रूप अग्नि से परिताप योग से परिवर्तित हो कर छान्दोग्यउपनिषत् वर्णित पञ्चाग्निविद्या प्रक्रिया से सोम में परिणत हो जाता है । श्रत् में सोम रखा जाता है । इसलिए उसे श्रद्धा कहते हैँ । पितृओं को शुद्ध व्यञ्जनादि (श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ।। गीता 17-3) श्रद्धापूर्वक समर्पण किया जाना श्रद्धया दीयते व्युत्पत्ति से श्राद्ध कहलाता है ।




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