लद्दाख की पुकार: पहचान, प्रकृति और लोकतंत्र
लेखक - आनंद किरण
लद्दाख—हिमालय की गोद में बसा वह ठंडा रेगिस्तान, जो अपनी अद्वितीय सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सुंदरता के लिए विश्वभर में जाना जाता है। 2019 में इसे जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। उस समय उम्मीदें जगीं कि लद्दाख की दशकों पुरानी मांगें पूरी होंगी। लेकिन आज, छह साल बाद, यह क्षेत्र एक नये द्वंद्व का प्रतीक बन गया है—स्थानीय आकांक्षाओं और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन का।
इस बहस के केंद्र में हैं सोनम वांगचुक—शिक्षाविद्, पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता। उनका आंदोलन केवल राजनीतिक दर्जे की मांग नहीं करता, बल्कि लद्दाख की आत्मा—उसकी भूमि, जल, संस्कृति और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की पुकार है।
आत्मनिर्भरता की संभावनाएं
लद्दाख ने सदियों से कठिन परिस्थितियों में आत्मनिर्भर जीवन पद्धति विकसित की है। परंपरागत जल संरक्षण प्रणालियों से लेकर आधुनिक आइस स्तूप जैसी तकनीकों तक, यहाँ के लोग विज्ञान और परंपरा का संतुलन साधते आए हैं। सौर ऊर्जा की अपार संभावनाएं और सीमित लेकिन टिकाऊ कृषि-पशुपालन मॉडल इस क्षेत्र को आत्मनिर्भर बना सकते हैं।
लेकिन विकास के इस रास्ते पर खतरे भी हैं। अनियंत्रित पर्यटन ने लद्दाख की नाजुक पारिस्थितिकी को असंतुलित कर दिया है। प्लास्टिक, अपशिष्ट और अव्यवस्थित निर्माण से यह अनूठा भू-भाग संकट में है। वांगचुक जैसे लोग एक ऐसे पर्यटन मॉडल की मांग कर रहे हैं, जिसमें कम संख्या लेकिन संवेदनशील और जिम्मेदार पर्यटक आएं।
लोकतंत्र की मांग
लद्दाखियों को केंद्र शासित प्रदेश तो मिला, पर विधानसभा नहीं। इसका अर्थ है कि लोग अपने जीवन और संसाधनों पर सीधा निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। इसी वजह से आज लद्दाख की सबसे बड़ी मांग है—छठी अनुसूची में शामिल होकर संवैधानिक सुरक्षा और लोकतांत्रिक अधिकार। 90% से अधिक अनुसूचित जनजाति आबादी वाला यह क्षेत्र अपनी पहचान और विरासत को लेकर आशंकित है।
सोनम वांगचुक का आंदोलन इसी चिंता से जन्मा है। उनका संघर्ष अहिंसक है, गांधीजी की सत्याग्रह परंपरा से प्रेरित। लेकिन छिटपुट हिंसक घटनाओं ने उन्हें भी चिंतित किया है। वे लगातार अपने समर्थकों से धैर्य और शांति बनाए रखने की अपील करते रहे हैं।
केंद्र सरकार की दुविधा
सरकार का तर्क है कि चीन और पाकिस्तान की सीमा से सटे इस रणनीतिक क्षेत्र पर सीधा नियंत्रण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। इसी कारण वह पूर्ण राज्य का दर्जा देने से झिझक रही है। हालाँकि, सरकार ने वार्ता और कुछ प्रशासनिक सुधारों के जरिए भरोसा जताने की कोशिश की है, लेकिन मुख्य माँगें अब तक अधूरी हैं।
हाल के दिनों में आंदोलन पर कठोर रुख, संगठन पर प्रतिबंध और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ने अविश्वास को और गहरा किया है। इससे सवाल उठता है कि क्या स्थानीय आवाज़ों को राष्ट्र-विरोधी करार देना समाधान है, या फिर संवाद और साझेदारी का मार्ग ही बेहतर है?
भविष्य का रास्ता
लद्दाख का भविष्य भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की भी परीक्षा है। यदि यह क्षेत्र अपनी पहचान, प्रकृति और संस्कृति की रक्षा के साथ आगे बढ़ सके, तभी यह भारत की प्रगति में पूरी तरह योगदान दे पाएगा। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र सरकार सुरक्षा की चिंता और स्थानीय आकांक्षाओं के बीच संतुलन साधे।
संवाद, पारदर्शिता और परस्पर सम्मान ही वह राह है जो लद्दाख को एक स्थायी और आशावान भविष्य की ओर ले जा सकती है। सोनम वांगचुक का आंदोलन हमें यह याद दिलाता है कि विकास का अर्थ केवल सड़कों और भवनों का निर्माण नहीं, बल्कि लोगों की पहचान, संस्कृति और प्रकृति की रक्षा भी है।
(उपरोक्त लेख में लेखक के अपने विचार हैं)