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भाषा का मौलिकता और सामाजिक उन्नयन.

भाषा का मौलिकता और सामाजिक उन्नयन.


लेखक - नरसिंह जी पूर्व प्रधानाचार्य 

 मौलिकता का अर्थ होता है विश्व के सृष्टि विकास का प्रारंभ बिन्दु और सृष्टि जन्य चीजों का प्रारंभिक स्वरूप। यह एक दार्शनिक तत्व है और गवेषणा का विषय है। जहां सृष्टि के विकास के मौलिक तत्वों का विवेचना होता है उसे ही वास्तविक दर्शन कहा जाता है। दर्शन के अनुसार कहीं भी कोई क्रिया होती है तो उसमें एक स्पंदन होता है। प्रारंभिक अवस्था में जो ध्वनि स्पन्दित होती है उसी को 
ओंकार कहा जाता है इसमें तीन ध्वनियों का समाहार है। अ, सृष्टि के उद्भव का बीज अक्षर है। ऊ, सृष्टि के पालन का बीज अक्षर है।
म, सृष्टि सत्ता मे जो परिवर्तन होता है अर्थात एक अवस्था का अंत होता है उसका बीज अक्षर है। इन्हीं तीनों ध्वनियों का समुच्चय ओम है, इसको ओंकार भी कहते हैं। उद्धव पालन और मृत्यु का कार्य प्रकृति के सत, रज, और तम गुणों के कारण संपन्न होता है। प्रकृति त्रिगुणात्मक सत्ता है। सत श्वेत वर्ण, रज रक्त वर्ण और तम कृष्ण वर्ण वाली है। इसलिए ओंकार ध्वनि भी वर्ण मय हैँ। सृष्टि के विकास के क्रम में जो स्पंदन होता है उसे ध्वनि तरंग कहते है। ध्वनि भी वर्णमय होती है, रंगमय होती है। ध्वनि ही शब्द है, और शब्द ही ब्रह्म है। ब्रह्म ध्वनि ही ओंकार है। ओंकार ध्वनि ही सब भाषा की मातृका ध्वनि है। इसी से विश्व की सभी भाषाओं का उद्भव हुआ है। सभी भाषाएं ध्वनि की ही शाब्दिक अभिव्यक्ति है।
 प्रश्न यह उठता है कि वैश्विक ध्वनि ओंकार जीव में कैसे अभिव्यक्त होती है, विशेषकर मनुष्य के भीतर। मनुष्य का शारीरिक ढांचा विभिन्न भौगोलिक परिवेश के प्रभाव से तदरूप बनता है। इसलिए इसमें प्रजातिगत विभिन्नता भी पाई जाती है। मानव शरीर को रुपेण मेरुदंड से गुथा हुआ है।
 तंत्र विज्ञान के अनुसार मेरुदंड के निम्न स्थान को मूलाधार चक्र कहा जाता है, क्रमशः ऊपर की ओर स्वादिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र अवस्थित है। विशुद्ध चक्र के ऊपर क्रमशः आज्ञा और सहस्त्रार चक्र है।

 मूलाधार चक्र ही मानव के अस्तित्व का आधार है, इसको कूल भी कहा जाता है। कुल को जीव का वंशाधार भी कहा जाता है।
 इसी कुल में अवस्थित है जैविक शक्ति। जिसे कुल कुंडलिनी शक्ति भी कहा जाता है,। मूलाधार चक्र से विशुद्ध चक्र में मनुष्य के वृत्ति समूह का उद्धव भी होता है और उसका नियंत्रण भी। मूलाधार चक्र में भाव की उत्पत्ति होती है और अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ते हुए यह भाव विशुद्ध चक्र में भाषा के रूप में अंकुरित हो जाता है अर्थात भाव भाषा के रूप में अभिव्यक्त होने का सामर्थ प्राप्त कर लेती है। अभिव्यक्ति का जो बीज मंत्र है वही ध्वनि रूप में पाया जाता है। मानव देह में अवस्थित विभिन्न चक्रो मे उत्पन्न वृत्ति समूह का उल्लेख प्रासंगिक लगता है।

 मूलाधार चक्र,
प धर्म अर्थ काम मोक्ष इसको पुरुषार्थ भी कहते हैं।
 स्वाधिष्ठान चक्र,
 अवज्ञा मुर्छा, प्रश्रय,अविश्वास, सर्वनाश और क्रूरता।
 मणिपुर चक्र,
 लज्जा, पीशुनता, ईर्ष्या प्रसूप्ति, विषाद, काशाय, तृष्णा, मोह, घृणा और भय।
 अनाहत चक्र,
 आज्ञा, चिंता, चेष्टा, ममता, विवेक, दंभ,विकलता, अहंकार, लोलुपता, कपटता, वितर्क, अनुताप। 
 
 विशुद्ध चक्र,
षड्ज, ऋषभ, गंधार मध्यम पंचम, धैवत, निषाद, ओम, हूँम, फट्ट, वौषण, वषट, स्वाहा, नमः, विष, अमृत,।

 प्रत्येक वृत्तियो के ध्वनि मूलक बीज मंत्र होते हैं, जो वर्णमाला के रूप में जाने जाते हैं जिसका विवरण चक्रवार दिया गया है.
 मूलाधार चक्र, ध्वनि मूल बीज मंत्र अथवा बर्ण,
श, ष, स, व इनकी संख्या चार है।
 स्वादिष्ठान चक्र,
 व, भ, म, य र ल। इनकी संख्या 6 है।
 मणिपुर चक्र,
ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ इनकी संख्या 10 है।

 अनाहत चक्र,
क, ख, ग, घ, ड, च, छ, ज, झ, ट, ठ,   इनकी संख्या 12 है।

 विशुद्ध चक्र,
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ  लृ ए ऐ ओ औ अं अः, इनकी संख्या 16 है।
 कुल मिलाकर 50 वर्ण है, 
आज्ञा चक्र मे अपरा  क्ष, और परा छ।
ए सब वर्ण एकसाथ गुथे हुए है, तभी तो इन्हे वर्णमाला कहते है।
वभिन्न ध्वनियाँ मूलाधार चक्र में परा रूप मे उत्पन्न होती है। परा ध्वनि बीज के रूप में है, वह परिवर्तित होकर पश्यंति के रूप में अंकुरित होकर स्वाधिष्ठान चक्र में दिखाई देती है। पश्यंति अभिव्यक्ति के पथ पर आगे बढ़ते हुए मणिपुर चक्र में प्रवेश करती है तब उसे मध्यमा कहते है। अर्थात मणिपुर भाव भाषा में व्यक्त होने का मध्य बिंदु है इसलिए इस भाव को मध्यमा कहते हैं। मणिपुर चक्र भाव और भाषा के मध्य का केंद्र है। इस प्रकार मूलाधार चक्र स्वादिष्ठान चक्र और मणिपुर में अभिव्यक्ति भाव रूप में होती है, ओंकार मानव देह मे परा, पश्यन्ति, और मध्यमा के रूप में अव्यक्त होता है। यह भाव मणिपुर चक्र में भाषा के रूप में अंकुरित होकर अनाहत चक्र में प्रवेश करता है। यह द्युतिमाना शक्ति के रूप मे जानी जाती है, द्युतिमाना का अर्थ है नई भाषा के रूप में प्रकाशित होना। जब यह विशुद्ध चक्र में प्रवेश करती है तो यह बैखरी भाषा के रूप में अभि प्रकाशित  होती है। जब यह कंठ के बाहर निकल कर अभि प्रकाशित होती है तो इसे श्रुति गोचरा शक्ति कहा जाता है, जो कान से सुना जा सके। यही भाषा के रूप में विभिन्न प्रकार के भाषा का विभाजनीकरण होता है। द्युतिमाना, बैखरी, श्रुति गोचरा भाषा के रूप मे अभिव्यक्ति होती है।
 मौलिक रूप से देखा जाए तो सभी मनुष्यों की भाषा एक है जैव यंत्र के प्राकृतिक विभिन्नता के कारण अनेक रूप में भाव की अभिव्यक्ति होती है उसी को भाषा कहते हैं।भाव एक ही होता है अभिव्यक्तियों में विभिन्नता पाई जाती है.
 सृष्टि के विकास के मौलिक और स्वाभाविक रूप में ध्वनि जैविक यंत्र के द्वारा विभिन्न भाषा के रूप में अनादि काल से मनुष्य द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। मनुष्य का देह यन्त्र विभिन्न परिवेश में जन्म लेने के कारण इसकी बनावट में विभिन्नता पाई जाती है ।इसीलिए भाषा में उच्चारणगत भेद पाया जाता है।एक ही भाव विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग रूपों में प्रकट होता है।
 मैं जल पिऊंगा,    हिंदी 
आमि जल खाबो . बांग्ला ल
लमू जल पिबी,         उडिया 
 इसकी शाब्दिक अभिव्यक्ति जो भी हो किन्तु विभिन्न अभिव्यक्तियो के पीछे का भाव तो एक ही है। 
 इस प्रकार हम कह सकते हैं भाषा ईश्वरीय अवदान है जो सभी जीवो को अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मिला है, ओंकार वैश्विक ध्वनि  है जो मनुष्य देह के माध्यम से ओम प्रकाशित होती हैं सभी भाषाओं का भाव एक ही होता है। अभिव्यक्तियों का रूप या उच्चारणगत भेद पाया जाता है ।भाषा भाव प्रकाशन का माध्यम है। छः चरणों में भाव प्रकाशित होता है, भाव जहां बीज रूप में रहता है उसे पर शक्ति इसका अवस्थान मूलाधार चक्र.। स्वादिष्ठान चक्र में वह भाव मानसिक तौर पर बोधगम  हो जाता है। यह जो बीज से अंकुरित भाव को मन ही मन देखता है उसे पश्यंति शक्ति कहते हैं. मणिपुर चक्र में आकर वह मानसिक ध्वनि बोधगम्यता मानस ध्वनि मे रूपांतरित होती है ।इसे मध्यम शक्ति कहते हैं. अब व्यक्ति उस मानस ध्वनि को भाषात्मक रूप देने के लिए सचेष्ट होता है. मानसिक अनुभूति को अभी प्रकाशित करने की इस प्रचेष्टा का नाम द्युतिमाना शक्ति है। यह नाभि और कंठ के बीच क्रियाशील होती है।कंठ मे आकर भाव भाषा में रूपांतरित होता है। इसे बैखरी शक्ति कहते है. बैखरी के बाद वह वास्तविक कथ्यभाषा का रूप प्राप्त करती है, और उसे श्रुति गोचरा कहते है।
 अर्थात जो विभिन्न भाषाओ मे विभिन्नता दिखाई देता है वह अभिप्रकाशन  के छठे भाग में दिखाई देता है। प्रथम पांच स्तरों में अभिप्रकाशन मे कोई भेद नहीं होता है। विश्व की सभी भाषाएं एक हैं इस तथ्य को सबको समझना चाहिए।

 समस्त जागतिक संपदा की तरह भाषा समूह भी परम पुरुष से प्राप्त सभी की पैतृक संपत्ति है।किसी भी भाषा से घृणा करने का अधिकार किसी को नहीं है। सभी भाषाओं से प्यार करना, आदर करना और इनके विकास का समुचित अवसर देना, प्रयोग और व्यवहार में किसी भी प्रकार का भाषाई छुआछूत को प्रश्रय नहीं देना उचित होगा।किसी भी भाषा के अस्तित्व का विरोध करना, इसे देसी और विदेशी के रूप में चिन्हित करना उचित नहीं है।
 भाषाओं को लेकर किसी भी प्रकार की समस्या को खड़ा करना अन्याय है, सामाजिक पाप है। भाषाएँ समाज के सभी व्यक्तियों को एक दूसरे के साथ जोड़ती है।

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