चुनाव आयुक्त की नियुक्ति: निष्पक्षता और लोकतंत्र पर सवाल
लेखक- कृपा शंकर पाण्डेय
भारत का लोकतंत्र अपनी मजबूती और निष्पक्षता के लिए विश्व में जाना जाता है, और इसका आधार है स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव। संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत भारत का चुनाव आयोग इस जिम्मेदारी को निभाता है। मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और अन्य चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति इसकी स्वतंत्रता का मूल है। 2 मार्च 2023 को सर्वोच्च न्यायालय ने अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें नियुक्ति के लिए एक निष्पक्ष तंत्र की स्थापना की गई। हालांकि, दिसंबर 2023 में संसद द्वारा पारित मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और कार्यकाल) अधिनियम, 2023 ने इस फैसले की भावना को कमजोर किया है।
यह लेख इस नए कानून, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश, और इसके लोकतांत्रिक निहितार्थों का निष्पक्ष और पारदर्शी विश्लेषण प्रस्तुत करता है।सर्वोच्च न्यायालय का आदेश: निष्पक्षता का आधार 2 मार्च 2023 को सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक समिति द्वारा की जाएगी, जिसमें शामिल होंगे: प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई)। इस तंत्र का उद्देश्य कार्यपालिका के एकतरफा प्रभाव को रोकना और नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी और स्वतंत्र बनाना था।यह आदेश तब तक लागू रहने वाला था जब तक संसद कोई नया कानून नहीं बनाती। इसके प्रमुख बिंदु थे:
न्यायिक निगरानी: सीजेआई की उपस्थिति कार्यपालिका के प्रभाव को संतुलित करती थी।
लोकतांत्रिक समावेशिता: विपक्ष के नेता की भागीदारी ने प्रक्रिया में संतुलन को बढ़ाया।
संवैधानिकता: यह फैसला संविधान के मूल ढांचे—स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव—के अनुरूप था।न्यायालय ने जोर दिया कि चुनाव आयोग की स्वतंत्रता लोकतंत्र का आधार है। संविधान सभा में डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने कहा था कि चुनावी मशीनरी को सरकार के नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए। यह आदेश उस सिद्धांत को मजबूत करता था।
नया कानून: कार्यपालिका का प्रभुत्व
दिसंबर 2023 में संसद ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और कार्यकाल) अधिनियम, 2023 पारित किया। इस कानून ने नई नियुक्ति समिति बनाई, जिसमें शामिल हैं:
प्रधानमंत्री (अध्यक्ष),लोकसभा में विपक्ष के नेता,प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री।
सीजेआई को हटाकर कैबिनेट मंत्री को शामिल करना इस कानून का सबसे विवादास्पद पहलू है। समिति में तीन में से दो सदस्य कार्यपालिका के प्रतिनिधि हैं, जिससे विपक्ष की राय को बहुमत से नजरअंदाज किया जा सकता है। इसके अलावा, कानून में प्रावधान है कि समिति में रिक्ति होने पर भी सिफारिशें वैध होंगी, जिसका मतलब है कि विपक्ष के नेता की अनुपस्थिति में भी सरकार निर्णय ले सकती है।निष्पक्षता पर सवाल नए कानून की कई आधारों पर आलोचना हो रही है:
कार्यपालिका का वर्चस्व: दो सरकारी प्रतिनिधियों की उपस्थिति कार्यपालिका को अनुचित प्रभाव देती है, जो सर्वोच्च न्यायालय के उद्देश्य—कार्यपालिका के नियंत्रण को रोकने—के खिलाफ है।
न्यायिक निगरानी की कमी: सीजेआई को हटाने से तटस्थता समाप्त हो गई, जो निष्पक्षता का महत्वपूर्ण तत्व थी। विपक्षी दलों, जैसे कांग्रेस और AIMIM, ने इसे “चुनाव आयोग को अधीन करने” का प्रयास बताया।
प्रक्रियात्मक कमियां: कानून पारित होने के दौरान कई विपक्षी सांसद निलंबित थे, जिसे “लोकतांत्रिक प्रक्रिया का उल्लंघन” कहा गया। उम्मीदवारों की शॉर्टलिस्टिंग में विपक्ष को पर्याप्त समय न देना भी पारदर्शिता की कमी दर्शाता है।ये कमियां यह धारणा बनाती हैं कि सरकार का लक्ष्य निष्पक्षता से अधिक नियंत्रण हो सकता है। याचिकाकर्ता, जैसे जया ठाकुर और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर), ने इसे संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 324 (स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव) का उल्लंघन बताया है।
सरकार का तर्क
सरकार का कहना है कि यह कानून अनुच्छेद 324(2) के तहत संसद के कानून बनाने के अधिकार का उपयोग है। केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने तर्क दिया कि सर्वोच्च न्यायालय का आदेश अंतरिम था, और संसद को स्थायी कानून बनाने का अधिकार है। सरकार यह भी दावा करती है कि विपक्ष के नेता की उपस्थिति निष्पक्षता सुनिश्चित करती है।हालांकि, कार्यपालिका का प्रभुत्व इन तर्कों को कमजोर करता है। यदि सरकार की मंशा केवल कानूनी ढांचा स्थापित करना थी, तो वह सर्वोच्च न्यायालय के संतुलित मॉडल को अपनाकर निष्पक्षता बनाए रख सकती थी। सीजेआई को हटाना और कार्यपालिका-प्रधान संरचना यह संकेत देती है कि प्राथमिकता नियंत्रण हो सकती है।लोकतंत्र पर प्रभावचुनाव आयोग की स्वतंत्रता लोकतंत्र का आधार है। कार्यपालिका का प्रभाव बढ़ने से मतदाता सूची, चुनावी नियम, या विवादों के समाधान जैसे क्षेत्रों में निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है। विपक्षी नेताओं, जैसे अरविंद केजरीवाल और केसी वेणुगोपाल, ने इसे “लोकतंत्र पर हमला” बताया। X पर उपयोगकर्ताओं ने इसे “तानाशाही” और “निष्पक्ष चुनावों को कमजोर करने” का कदम कहा।हाल के वर्षों में स्वतंत्र संस्थानों पर नियंत्रण की चिंता बढ़ी है।
मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय माननीय न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने हाल ही में कहा कि कुछ ताकतें स्वतंत्र संस्थानों, जैसे न्यायपालिका, पर नियंत्रण चाहती हैं। यह बयान नए कानून से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ता है, क्योंकि सीजेआई को हटाना न्यायिक निगरानी को कमजोर करता है।क्या यह सत्ता का खेल है?कई आलोचकों का मानना है कि यह कानून सत्ता को प्रभावित करने की रणनीति का हिस्सा है। एक अनुकूल चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल को अप्रत्यक्ष लाभ दे सकता है। हालांकि, यह कहना कि इसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता में बने रहना है, अतिशयोक्ति के रूप में स्वीकार भी कर लिया जाए हो , क्योंकि सरकार इसे संवैधानिक अधिकार के रूप में पेश करती है, तो फिर भी, निष्पक्षता की कमी और प्रक्रियात्मक कमियां यह धारणा बनाती हैं कि मंशा पूरी तरह तटस्थ नहीं है।निष्कर्ष और रास्ता आगे नया कानून निष्पक्षता और पारदर्शिता के मानकों पर खरा नहीं उतरता। सर्वोच्च न्यायालय का 2023 का आदेश संवैधानिक मूल्यों—स्वतंत्रता, निष्पक्षता, और पारदर्शिता—को मजबूत करता था। नया कानून कार्यपालिका के प्रभुत्व को बढ़ाकर इन मूल्यों को कमजोर करता है। यह कानून सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती के अधीन है, और इसका भविष्य इसकी संवैधानिकता पर निर्भर करेगा।लोकतंत्र की रक्षा के लिए चुनाव आयोग को कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त रखना होगा। संसद को अपने अधिकार का उपयोग निष्पक्षता को बढ़ाने के लिए करना चाहिए। सीजेआई जैसे तटस्थ तत्व की उपस्थिति न केवल संवैधानिक भावना को बल देगी, बल्कि जनता का विश्वास भी बनाए रखेगी। भारत के लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह जरूरी है कि निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित हों और इसके लिए चुनाव आयुक्त का पदस्थापन बिल्कुल निष्पक्ष हो जब तक की लोकतंत्र से कोई बेहतर शासन प्रणाली इसका स्थान नहीं ग्रहण करती है ।